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Tuesday, November 2, 2010

बहुत है दर्द होता हृदय में साथी!

कि जब नित देखता हूं सामने -

कौड़ियों के मोल पर सम्मान बिकता है -

कौड़ियों के मोल पर इन्सान बिकता है!

किन्तु, कितनी बेखबर यह हो गयी दुनियां

कि इस पर आज भी परदा दिये जाती!

लेकिन इतनी आसानी से पंकज जी की उद्दाम आशा मुरझाने वाली नहीं थी, क्योंकि — -

छोड़ दी जिसने तरी मँझ-धार में

क्यों डरे वह तट मिले या ना मिले!

चल चुका जो विहँस कर तूफान में

क्यों डरे वह पथ मिले या ना मिले।

है कठिन पाना नहीं मंजिल, मगर

मुस्कुराते पंथ तय करना कठिन!

रोंद कर चलना वरन होता सरल

कंटकों को चुमना पर है कठिन।

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